‘उत्तर आधुनिक आलोचना के विविध आयाम’ (राष्ट्रीय संगोष्ठी)

27 मार्च 2018, हिन्दी एवं तुलनात्मक साहित्य विभाग, केरल केन्द्रीय विश्वविद्यालय द्वारा विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, भारत सरकार द्वारा अनुदानित राष्ट्रीय संगोष्ठी ‘उत्तर आधुनिक आलोचना के विविध आयाम’ विषय पर आयोजित हुई। संगोष्ठी का उद्घाटन करते हुए केरल केन्द्रीय विश्वविद्यालय के शिक्षाशास्त्र विभाग के संकायाध्यक्ष्य एवं अध्यक्ष प्रो. के. पी. सुरेश ने कहा कि आलोचना सृजन के लिए सबसे आवश्यक है और छात्रों के लिए ऐसी संगोष्ठियाँ अत्यंत लाभकारी सिद्ध होंगी। अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए हिन्दी विभागाध्यक्षा प्रो. सुधा बालकृष्णन ने वर्तमान में आलोचना को सबसे सार्थक एवं उपयोगी विधा बताते हुए विचारों में भी आधुनिकता होने की बात कही। उद्घाटन सत्र का बीज वक्तव्य देते हुए कोलकाता से आये भारतीय भाषा परिषद के निदेशक प्रो. शंभुनाथ ने कहा कि भारत में उत्तर आधुनिकता की बात इसलिए की जाती है चूंकि अभी तक हम आधुनिक नहीं हो पाये हैं। उत्तर आधुनिकता आधुनिकता के विफलता की कहानी बयाँ करती है। केरल के नारायण गुरु का उल्लेख करते हुए उन्होंने बताया कि उत्तर आधुनिकता विखण्डन और पुनर्निर्माण का युग्म है। उत्तर आधुनिकता उत्तर सत्य की बात करता है जहाँ सत्य तक पहुँचने की इच्छा नहीं रह जाती और झूठ ही आकर्षक लगने लगता है। ‘उत्तर आधुनिक’ शब्द को व्याख्यायित करते हुए महावृत्तांतों का अंत, मनुष्य की श्रेष्ठता, सत्य एक नहीं है अपितु उसके अनेक पहलू हैं, आज का समय टकराते सत्यों का यथार्थ है, आलोचना में पाठ महत्त्वपूर्ण हो चुका है, पाठ की अपेक्षा अंतर्पाठ को अधिक महत्त्व, रचनाकार की मृत्यु, पढ़ने का अर्थ भिन्नता की पहचान आदि बिन्दुओं को गहराई से व्याख्यायित किया। इनके अतिरक्त भाषा एवं तुलनात्मक साहित्य विद्यापीठ के संकायाध्यक्ष प्रो. एन. अजित कुमार, राँची विश्वविद्यालय से आये प्रो. रविभूषण, केरल केन्द्रीय विश्वविद्यालय के भाषा-विज्ञान विभाग के अध्यक्ष डॉ. पलनिराजन ने उद्घाटन सत्र में अपने विचार प्रस्तुत किये। संगोष्ठी में विभाग की शोध छात्रा दिलना के की पुस्तक ‘वेश्यावृत्ति का परिदृश्य: मोहनदास नैमिशराय कृत आज बाजार बंद है के विशेष संदर्भ में’ का विमोचन माननीय कुलपति के कर-कमलों द्वारा किया गया। उक्त सत्र का संचालन विभागीय शोध छात्रा दीक्षा सिंह और धन्यवाद ज्ञापन विभाग की सहायक आचार्य डॉ. सुप्रिया पी ने किया।

संगोष्ठी के प्रथम अकादमिक सत्र उत्तर आधुनिकता के संदर्भ में हिन्दी आलोचना का बदलता स्वरूपकी अध्यक्षता करते हुए राँची विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो. रविभूषण ने कहा कि उक्त विषय के चुनाव में पूरी गंभीरता दिखाई गयी है। उत्तर आधुनिकता पर बात करने के लिए हमें 3.. वर्षों के यूरोपीय कालखण्ड को आधार मानना पड़ेगा जिसने संपूर्ण विश्व पर अत्यधिक प्रभावित किया है। इसके साथ ही उक्त शब्द के संदर्भ में 74-75 ऐसे चिन्तकों की सूची आती है जिन्हें जाने बिना उत्तर आधुनिकता को नहीं समझा जा सकता। उन्होंने उत्तर आधुनिकताको स्पष्ट करते हुए विभिन्न विद्वानों के विचारों से श्रोताओं को अवगत कराया, जिनमें उत्तर आधुनिकता नवजात शिशु है, विस्तार है, अन्तिम बिन्दु है, व्यक्ति केन्द्रित सिद्धांत है, यथार्थ की छाया है, सम्पूर्णता की अवधारणा को तोड़ने वाला है, विचाराधारा की समाप्ति है, महावृत्तांतों का अंत है, इतिहास का अंत है आदि प्रमुख थे। उन्होंने आगे कहा कि उत्तर आधुनिकता अपने भीतर 64 कलाओं को समेट लेता है। कालिकट विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रो. प्रमोद कोवप्रत ने हिन्दी साहित्य में उत्तर आधुनिकता के हस्तक्षेप की विस्तारपूर्वक चर्चा करते हुए उत्तर आधुनिकता को अंधे द्वारा हाथी पकड़नाकहा। इस संदर्भ में उन्होंने मंगलेश डबराल, पाब्लो नेरुदा, नरेश सक्सेना, भीष्म साहनी, ज्ञानरंजन, उदय प्रकाश आदि रचनाकारों की रचनाओं में गहराई से जाकर विवेच्य शब्द की पड़ताल की। सत्र का संचालन विभाग के शोध छात्रा दिलना के और धन्यवाद ज्ञापन प्रिया राणा द्वारा किया गया।

संगोष्ठी का द्वितीय अकादमिक सत्र उत्तर आधुनिक हिन्दी आलोचना में अस्मितामूलक विमर्शथा जिसकी अध्यक्षता कालिकट विश्वविद्यालय के प्रो. प्रमोद कोवप्रत ने की। उन्होंने बताया कि आज जो अस्मिताओं का दौर चल रहा है उसके मूल में मनुष्य की मरती हुई संवेदनाएँ हैं। संवेदना और अस्मिता का बहुत ही गहरा संबंध है। ऐसे दौर में आलोचकों का दायित्व और अधिक बढ़ जाता है जब कोई उन्हें सुनने के लिए तैयार न हो। गोवा विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के सहायक आचार्य एवं युवा आलोचक डॉ. विपिन तिवारी ने नारीवादी आलोचना पर अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि स्थान, समय और व्यक्ति के साथ-साथ शब्द के अर्थ भी बदल जाते हैं। सीता हमारे समाज के लिए आदर्श जरूर है लेकिन आज को भी स्त्री सीता बनना नहीं पसंद करेगी। उन्होंने पति-पत्नीशब्द को व्याख्यायित करते हुए इसे पितृसत्तात्मक समाज की देन कहा। डॉ. तिवारी ने नारीवाद की तीन लहरों पर विस्तार से अपने विचार रखे। विभाग की शोध छात्रा दिलना के ने अपने विचारों से श्रोताओं को अवगत कराते हुए उत्तर आधुनिकता के संदर्भ में केन्द्र और परिधि के अंतद्र्वंद स्पष्ट किया। सत्र का संचालन विभागीय शोध छात्र मनोज कुमार और धन्यवाद ज्ञापन अजिना ओ द्वारा किया गया।

समापन सत्र की अध्यक्षता हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रो. सुधा बालकृष्णन ने करते हुए कहा कि यह संगोष्ठी शोध छात्रों के लिए बहुत ही लाभकारी रही और इसके माध्यम से हमें उत्तर आधुनिक हिन्दी आलोचना के विविध पहलुओं को जानने और समझने में सहायता मिली है। विशिष्ट अतिथि के रूप में केरल केन्द्रीय विश्वविद्यालय के शोध निदेशक और अंतरराष्ट्रीय संबंध राजनीति विभाग के अध्यक्ष प्रो. एम. एस. जॉन ने कहा कि आज हमारा समाज, संस्कृति और परंपराएँ उत्तर आधुनिकता से प्रभावित हैं। इसकी व्यापकता केवल साहित्य तक सीमित न रहकर पूरे समाज विज्ञान तक है। इस संदर्भ में उन्होंने गांधी जी के सत्य के प्रयोगकी व्यापकता का उल्लेख किया। इसके अतिरिक्त भारतीय भाषा परिषद के निदेशक प्रो. शंभुनाथ और राँची विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो. रविभूषण ने समापन सत्र में अपने वक्तव्य दिए। हिन्दी विभाग की सहायक आचार्य डॉ. सुप्रिया पी ने संगोष्ठी का प्रतिवेदन प्रस्तुत किया। सत्र का संचालन डॉ. धर्मेन्द्र प्रताप सिंह और धन्यवाद ज्ञापन संगोष्ठी के संयोजक डॉ. रामविनोद रे ने किया।

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