27 फरवरी 2023, हिंदी एवं तुलनात्मक साहित्य
विभाग, केरल केंद्रीय विश्वविद्यालय द्वारा ‘भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में हिंदी का योगदान’ विषय
पर दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित की गई। कार्यक्रम का उद्घाटन करते हुए केरल
केन्द्रीय विश्वविद्यालय के शैक्षिक अधिष्ठाता प्रो. अमृत जी कुमार ने कहा कि किसी
भी क्रांति या परिवर्तन में भाषा सबसे महत्वपूर्ण कारक होती है। इस संदर्भ में
उन्होंने फ्रेंच क्रांति में रूसो और मांटेस्क्यू का उल्लेख करते हुए कहा कि
सामाजिक न्याय में भाषा सबसे महत्वपूर्ण तत्व होती है। इसमें साहित्यकार
महत्वपूर्ण होता है। भारत जैसे बहुभाषिक देश के लिए एक भाषा का होना जरूरी था और
हिंदी ने उस जरूरत की पूर्ति की। समाचार पत्र लोगों को जागरूक करते हैं जिनका वजूद
भाषा के बिना संभव नहीं। लाला लाजपत राय जैसे महान नेता हिंदी की वकालत करते हैं जो
स्वाधीनता की लड़ाई में इस भाषा के महत्व को रेखांकित करता है। कार्यक्रम की
अध्यक्षता कर रहे हिंदी विभाग के कार्यवाहक अध्यक्ष प्रो. तारु एस. पवार ने कहा कि
हिंदी प्रचारित और प्रसारित भाषा है जिसके माध्यम से संपूर्ण राष्ट्र को एक सूत्र
में जोड़ा जा सकता था और स्वाधीनता आंदोलन के दौरान हिंदी ने पूरे राष्ट्र को एक
सूत्र में बांधने का काम किया। केरल केंद्रीय विश्वविद्यालय के राजभाषा अधिकारी डॉ.
अनीश कुमार टी. के. ने प्रो. अमृत के विचारों पर सहमति व्यक्त करते हुए कहा कि
हिंदी भावात्मक चेतना बनाने का महत्वपूर्ण कारक है। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान
हिंदी भाषा एक महत्वपूर्ण हथियार के रूप में प्रयुक्त होती है। दक्षिण भारत हिंदी
प्रचार सभा, चेन्नई के प्रो. मंजूनाथ एन. अंबिग ने बीज
वक्तव्य देते हुए कहा कि हिंदी साहित्य की अधिकांश विधाओं के लेखन में स्वाधीनता की
चेतना विद्यमान है। हिंदी के साहित्यकारों ने उस पर पर्याप्त लेखन किया है जिस पर
संगोष्ठी में चर्चा की जाएगी। यह विद्यार्थियों और शोधार्थियों के लिए बहुत ही प्रासंगिक
विषय है। हिंदी विभाग के सहायक आचार्य डॉ. बिनोद रे ने अपने स्वागत भाषण में कहा कि महात्मा गांधी, रवीन्द्रनाथ टैगोर,
बंकिम चंद्र चटर्जी आदि सभी अलग-अलग भाषा भाषी थे लेकिन सभी ने देश को एक सूत्र
में बांधने के लिए हिंदी की वकालत की और हिंदी ने देश की स्वाधीनता में अपनी
भूमिका बखूबी अदा की। एम. ए. प्रथम सेमेस्टर की छात्रा प्रियंका शुभदर्शी पति ने उद्घाटन
सत्र का संचालन और श्राव्या वी ने धन्यवाद ज्ञापन किया।
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दीप प्रज्जवलन कर संगोष्ठी का उद्घाटन करते विशिष्ट अतिथि
| अध्यक्षीय उद्बोधन देते हिन्दी विभाग के कार्यवाहक अध्यक्ष प्रो. तारु. एस. पवार
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स्वागत वक्तव्य देते संगोष्ठी संयोजक और हिन्दी विभाग के सहायक आचार्य डॉ. रामबिनोद रे
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बीज वक्तव्य देते दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा के प्रो. मंजूनाथ एन. अंबिग
| आशीर्वचन प्रस्तुत करते केरल केन्द्रीय विश्वविद्यालय के राजभाषा अधिकारी डॉ. अनीश कुमार |
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राष्ट्रीय संगोष्ठी के
प्रथम अकादमिक सत्र ‘स्वतंत्रता संग्राम में हिंदी उपन्यास का
योगदान’ की अध्यक्षता प्रोफ़ेसर मंजूनाथ अंबिग ने की। मुख्य
वक्ता के रूप में पय्यन्नूर महाविद्यालय की हिंदी विभाग से डॉ. सुरेखा ने ‘भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में हिन्दी का योगदान’ विषय
पर अपना वक्तव्य रखते हुए कहा कि औपनिवेशिक शक्ति से मुक्ति प्रगति का एकमात्र
रास्ता है। व्यक्ति की स्वतंत्रता समाज सापेक्ष और यह एक-दूसरे पर आश्रित होती है।
डॉ. सुरेखा ने भारतेन्दु हरिश्चंद्र की ‘अंधेर नगरी’, और ‘भारत दुर्दशा’ जैसे
नाटकों का उल्लेख किया जिसमें स्वाधीनता की चेतना साफ तौर पर देखी जा सकती है।
मैथिलीशरण गुप्त की ‘भारत भारती’ की
एक-एक पंक्ति देश में स्वाधीनता की चेतना पैदा करती है। हिंदी कविता में स्वाधीनता
आंदोलन का सबसे विश्वसनीय और शक्तिशाली रूप देखने को मिलता है। ‘शतरंज के खिलाड़ी’ में ग्रामोद्धार का संदेश, गोदान में किसानों का
संघर्ष और भारतीय अर्थव्यवस्था की दशा आदि देखने को मिलता है। इसके साथ ही शंकर सर्वस्व, पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’,
जयशंकर प्रसाद आदि रचनाकारों का उल्लेख करते हुए उन्होंने हिंदी साहित्य में
स्वाधीनता आंदोलन के महत्वपूर्ण बिंदुओं को रेखांकित किया। केरल केंद्रीय विश्वविद्यालय
की शोध छात्रा दीक्षा सिंह ने ‘स्वाधीनता संग्राम में
आदिवासी और हिंदी उपन्यास’ विषय पर अपने विचार प्रस्तुत करते
हुए कहा कि इतिहास विजेताओं का लिखा जाता है। पहाड़िया आदिवासियों के माध्यम से
स्वाधीनता आंदोलन की शुरुआत होती है जिनका जिक्र तक इतिहास के पन्नों में नहीं
मिलता। आदिवासियों का अधिकतर साहित्य वाचिक परंपरा में विद्यमान है जिसका कोई लिखित
प्रमाण हमारे पास नहीं है। आदिवासी लोकगीत और अंग्रेजों की डायरी में यह प्रमाण
कहीं-कहीं मिल जाता है। उन्होंने 1766 में पहाड़िया आदिवासी
और अंग्रेजों के दखल के विद्रोह का उल्लेख करते हुए तिलका मांझी और बिरसा मुंडा के
योगदान को याद किया। संथाल विद्रोह में 10,000 से ज्यादा
आदिवासी शहीद हुए। आदिवासियों को लेकर जितना लिखा जाना चाहिए उतना नहीं लिखा गया
लेकिन फिर भी राकेश कुमार सिंह, महाश्वेता देवी, हरिराम मीणा, संजीव, रणेन्द्र
आदि सभी के लेखन में आदिवासियों का संघर्ष दिखाई देता है। आदिवासियों पर बात करने
के लिए उनकी 90 भाषाएं और लिपि का पूरी तरीके से अभाव होना
बड़ी चुनौती है। इस सत्र का संचालन एम. ए. तृतीय सेमेस्टर की छात्रा उन्नीमाया और
धन्यवाद ज्ञापन धन्यवाद ज्ञापन आतिरा के ने किया।
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उद्घाटन सत्र का संचालन करती एम. ए. प्रताहम सेमेस्टर की छात्र प्रियंका शुभदर्शी पति |
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| उद्घाटन सत्र में धन्यवाद देती प्रथम सेमेस्टर की छात्रा श्राव्या वी
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वक्तव्य प्रस्तुत करती पय्यन्नूर कॉलेज की हिन्दी विभाग की सहायक आचार्य डॉ. सुरेखा
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शोध पत्र प्रस्तुत करती हिन्दी विभाग की शोध छात्रा दीक्षा सिंह
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प्रथम अकादेमिक सत्र में धन्यवाद ज्ञपित करती तृतीय सेमेस्टर की छात्रा आतिरा के
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प्रथम अकादेमिक सत्र का संचालन करती तृतीय सेमेस्टर की छात्रा उन्नीमाया
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